शुक्रवार, 2 मार्च 2018

कश्मकश ...!

हर शाख़ पर उल्लू बैठा है

हर शख़्स  यहां कीचड़ से मैला है
क्या रंग क्या गुलाल खेलूं
हर चमन में शातिर शागिर्द बैठा है

तुम बात करते हो मकानों की

यहां हर घर बेज़ुबानों से दहला है
पंख लगाकर क्या उड़े चिड़िया
हर सैय्यद  पंख कतरने   बैठा है

जिस्म में थरथराहट मौजूद भी है

मेरे हाथों में कांपते मेरे सपने भी हैं ...!
कुछ कहने को उतावला  मेरा मन भी है
हाँ  वो गोले आग के,मेरे अंदर भी हैं ।
# अनीता लागुरी (अनु)

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